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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 हिन्दी - साहित्यशास्त्र और हिन्दी आलोचना

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2784
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 हिन्दी - साहित्यशास्त्र और हिन्दी आलोचना- सरल प्रश्नोत्तर

4. रामविलास शर्मा तुलसी साहित्य में सामन्त विरोधी मूल्य

प्रश्न- डॉ0 रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि 'तुलसी साहित्य में सामन्त विरोधी मूल्य' का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर -

प्रस्तावना - आलोचना के ऐसे संसार में जहाँ कथा सम्राट को सामन्त का मुंशी कहा जा रहा हो वहाँ कोई बहुत अचंभे की बात नहीं कि तुलसीदास को कुछ उद्धरणों या काव्य पंक्तियों के आधार पर बिना सन्दर्भ को देखे सांमतवादी व्यवस्था का पक्षधर कहा जाता है। रामविलास शर्मा अपने लेख 'तुलसी साहित्य के सामंत विरोधी मूल्य' के द्वारा अपने प्रिय कवि तुलसीदास पर लगाये गए आरोपों का तार्किक रूप में खण्डन करते हैं।

रामविलास शर्मा तुलसीदास को श्रद्धा और प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण से देखने वाले दोनों तरह के आलोचकों को व्यंग्य के लहजे में कहते हैं कि प्रतिक्रियावादी आलोचक तुलसी की कला के महत्त्व को स्वीकारने के बावजूद उनकी विचारधारा को प्रति-विरोधी मानते हैं जबकि तुलसी को श्रद्धा की नजर से देखने वाले आलोचक तुलसीदास को हिन्दू धर्म का उद्धारक मानते हैं। 'दोनों तरह के आलोचक श्रद्धा के बावजूद एक ही नतीजे पर पहुँचते हैं और वह यह कि तुलसीदास जर्जर होती हुई सामंती संस्कृति के पोषक थे। इसलिए आज की जातीय संस्कृति के निर्माण में 'ऊँची जाति और 'नीची' जाति के हिन्दुओं, मुसलमानों आदि की मिली जुली संस्कृति के निर्माण में उनकी विचारधारा कोई मदद नहीं कर सकती। रामविलास शर्मा को इन दोनों तरह के दृष्टिकोणों का लक्ष्य एक ही नजर आता है कि वे हिन्दी भाषी जनता को तुलसीदास की सांस्कृतिक विरासत से वंचित कर देते हैं।

जातीय संस्कृति का विकास और सामंती स्वरूप का पतन

रामविलास शर्मा साहित्य की परम्परा को स्वीकारते हुए इस परम्परा के मूल्यांकन पर बल देते हैं वे साहित्य के इतिहास की परम्परा को प्रगतिशील दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करते हैं। वे आलोचना में साहित्य की परम्परा के महत्त्व को इतिहास के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद के महत्त्व से जोड़ते हैं और साहित्य की परम्परा के ज्ञान को प्रगतिशील आलोचना के विकास से सम्बद्ध करते हैं। इसी कारण से वे साहित्य की परम्परा को विस्मृत करने की अपेक्षा उससे प्रेरणा ग्रहण करते हुए इसके मूल्यांकन पर बस कुछ आलोचकों का सामंत विरोधी मूल्य वास्तव में एक प्रकार के उत्तर है उन आलोचकों को जो तुलसी के साहित्य को कुछ संकुचित आग्रहों के साथ देखते हैं। उनके लिए या तो तुलसीदास आस्थावादी हैं या फिर सामंतवादी। कुछ साथी तो उन्हें ब्राह्मणवादी और स्त्री विरोधी तक कहते हैं। रामविलास शर्मा अपने इस एक लेख के माध्यम से उनके आग्रहों को तर्कों से तोड़ते चलते हैं। रामविलास शर्मा उपरोक्त आग्रहों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उपजा नहीं मानते क्योंकि यह धारणाएँ एवं आग्रह तुलसीदास के साहित्य से कुछ उद्धरण चुनकर बनाए गए हैं जिसमें निश्चित ही तुलसी साहित्य की सांस्कृतिक विरासत को खत्म करने की मंशा भी निहित थी तभी तो केवल उद्धरण या काव्य पंक्तियाँ उछाली गई और उनके पीछे का सन्दर्भ नहीं बताया गया।

रामविलास जी इस लेख में उन सब पूर्वाग्रहों, धारणाओं और मतों का सन्दर्भ सहित जबाव देते हैं। वे भक्ति आन्दोलन को आकस्मिक घटना न मानते हुए और भक्ति आन्दोलन के आधार को खोजते हुए इस निष्कर्ष की तरफ बढ़ते हैं कि एक समय भक्त कवियों जिसमें शूद्र, सवर्ण हिन्दू, मुसलमान, सगुण, निर्गुण, सूफी संत सभी तरह के कवि शामिल थे की बाढ़ सी आ गई थी इन कवियों ने भक्ति और उपासना को ढोंग आडम्बर और जातिवाद से अलगाते हुए प्रेम को उपासना में प्रमुख माना था इनकी 'रचनाओं में प्रेम को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया गया। वर्ण और धर्म का भेद प्रेम में बाधक न समझा गया, अक्सर इस तरह के भेद की कड़ी आलोचना भी की गई। "

रामविलास शर्मा भक्ति आन्दोलन की ऐतिहासिकता बताते हुए सिद्ध करते हैं कि भक्ति आन्दोलन में सामंती ढाँचा ज्यों का त्यों नहीं रह गया था चरमराने लगा था भक्ति आन्दोलन कोई कल्पना जन्य आन्दोलन नहीं था बल्कि उसकी जड़े नए सामाजिक यथार्थ में गहरे रूप में बैठी हुई थी। जो लोग भक्तिकाल को शुद्ध कल्पनाजन्य और सामंतीकाल के रूप में देखते हैं उन्हें यह याद रखना होगा कि भक्तिकाल में संत साहित्य इतिहास में एक अनूठी घटना है। चूँकि इसके प्रसार के साथ ही सैकड़ों साल से चला आ रहा संस्कृत का प्रभुत्व खत्म होता दिखाई देता है। धर्म को इसी काल में चुनौती मिलती है और पुरोहितों के फैलाए ढोंग आडम्बरों पर खुलकर चोट की जाती है बोलने की एक नई संस्कृति का विकास होता है। जहाँ खड़ा होकर कवि यह कह पाता है कि-

जे तू बाँमन बमनी जाया
आन बाट से क्यों नहीं आया।

शर्मा जी सवाल करते हैं कि क्या यह सब सामंती व्यवस्था के कमजोर हुए बिना सम्भव था?

सामन्तवादी परम्परा - 16वीं सदी के इतिहास को सामंतवादी इतिहास कहने वाले लोगों की आँखें धर्म की नजर से इस इतिहास को देख रही थी। पर इतिहास तथ्यों से लिखा जाता है आस्था से नहीं। ऐसे लोगों को शेरशाह सूरी और अकबर के शासन काल में विकास के कार्यों को देखना चाहिए। शर्मा जी इसका एक खाका प्रस्तुत करते हैं। और अपना सवाल दोहराते हैं कि क्या ये सब कार्य सांमतवाद के कमजोर हुए बिना सम्भव थे। “नहरें खुदने और सड़के बनने से यातायात में उन्नति हुई, एक ही तरह की मुद्रा के चलन से व्यापार में सुविधा हुई, राज्य और काश्तकार में सीधा सम्बन्ध स्थापित होने से जनपदों का अलगाव कम हुआ। बारूद के इस्तेमाल से केन्द्रीय राजसत्ता जमीदारों की स्वच्छन्दता कम करके उन्हें अपने मातहत कर सकी। यूरोप में भारत का व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर आगे बढ़ा, उत्तर भारत ने संघर्ष किए और इस तरह भी उसकी एकता बढ़ी। इन परिस्थितियों में सामंती ढाँचा जर्जर हुआ।"

इस विकास का एक लाभ तो यह हुआ कि सामंतवादी ढाँचा जर्जर हो गया और दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह हुआ कि अलग-अलग छोटे-छोटे जनपदों के हृदय में राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत हुई उनके भीतर का अलगाव ख़त्म हुआ और वे जातीय एकता के सूत्र में संगठित होने लगे। 'भक्ति आन्दोलन इस जातीय आन्दोलन का सांस्कृतिक प्रतिबिम्ब था। '

रामविलास शर्मा भक्ति आन्दोलन को काम, क्रोध, मद और मोह से मुक्त करने वाला आन्दोलन मानने वाले विचारकों को बताते हैं भक्ति आन्दोलन की जातीय एकता ने अलगाव को जातियों से निकालकर सामंती ढाँचे को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई। इसलिए भक्त कवियों की मूल समस्या मुक्ति पाने को लेकर नहीं थी बल्कि उनकी काव्य संवेदना सामाजिक चेतना के ताने बाने से बुनी गई थी जिसमें हर वर्ण और जाति के रेशे बिंधे हुए थे। निश्चित ही इससे सत्ता पक्ष और पुरोहितों को कष्ट हुआ होगा क्योंकि धर्म और समाज पर इनके वर्चस्व को खुली चुनौती इन भक्त कवियों द्वारा दी गई। 'इसलिए सामंतों और पुरोहितों के खिलाफ जनता के संघर्ष ने अगर धार्मिक लिबास पहना तो वह एक अनिवार्य ऐतिहासिक आवश्यकता थी। "

तुलसी साहित्य में सामंत विरोध: प्रश्न-उत्तर

तुलसी के साहित्य से अक्सर ऐसी पंक्तियाँ विशेष विचारधारा से चुनी गई जिससे उन्हें हिन्दूवादी, स्त्री विरोधी, दलित विरोधी और सामंतवाद की पैरवी करता दिखाया जा सके जबकि भक्तिकाल के प्रतिनिधि के रूप में बुनियादी सवाल यह था कि किस हद तक तुलसी के विचार हमारे सांस्कृतिक विकास में आज सहायक हो सकते हैं?"

अपनी समीक्षा रामविलास शर्मा इस सवाल का जवाब खोजते हुए उन धारणाओं का पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं जिससे तुलसी के साहित्य में सामंतवाद की झलक देखने को मिलती है।

पहला सवाल यही है कि तुलसी के साहित्य में ब्राह्मण पूजा को सबसे बड़ा धर्म बतलाया गया है? जिसके जवाब में रामविलास शर्मा का कहना है कि वर्णाश्रम धर्म के समर्थकों पुरोहितों ने तुलसीदास को बहुत सताया था तुलसी ने भी अपने जन्म से सन्दर्भ में उनके सवाल का कड़ा जवाब दिया था।

जात-पात को लेकर जब तुलसी से सवाल किया गया तो तुलसी ने स्वयं को राम के गोत्र का बताया और कहा कि जो गोत्र मेरे भगवान राम का है वहीं इस सेवक का। और कहीं-कहीं तो वे जातिवादियों को चुनौती देते हुए कहते हैं-

धूत कहों, अबधूत कहौ, रजपूत, कही, जुलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा न व्याहब काहू का जाति बिगार न सोऊ ॥

रामविलास शर्मा का कथन है कि 'इस एक छन्द में तुलसीदास के समूचे जीवन का संघर्ष चित्रित हो गया है।'

पुरोहितों द्वारा तुलसीदास को तरह तरह के ताने दिए गए होंगे तभी तुलसी को लिखना पड़ा होगा-

"मांगी के खैबो मसीत के सोइबो लेबे को एक न देबे को दोऊ।"

जो लोग तुलसी पर शूद्रों पर ब्राह्मणों के समर्थन का आरोप लगाते हैं सम्भवतः वे कवितावली के निडर तुलसी की पंक्तियों को विस्मृत कर चुके हैं जहाँ तुलसी वर्ण और जाति की व्यवस्था को चुनौती देते हैं। इस तरह के उदाहरणों को नकराते हुए कुछ पंक्तियाँ चुनी गई जिससे तुलसीदास के साहित्य को साहित्येतिहास की परम्परा से बाहर किया जा सके।

रामविलास शर्मा अपने तर्कों से तुलसी को जातिवादी कहने वाले विचारकों की धारणाओं का खण्डन करते हैं। तो उन आस्थावादी विचारकों के इस तर्क का भी खण्डन करते हैं। कि तुलसी ने हिन्दू धर्म की इस्लाम से रक्षा की जबकि तुलसी के मन में इस्लाम के प्रति किसी तरह की बैर भावना नहीं थी। तुलसी के आराध्य राम भी जाति के बंधनों को तोड़ते हैं।

सामंतवाद की अपेक्षा तुलसी की कविता जनवादी तत्त्वों से युक्त है जहाँ, वर्ण, जाति, धर्म का बहिष्कार नहीं है। तुलसी की कविता ने पुरोहितों द्वारा आम जनता के लिए बंद किए द्वारों को पुनः खोल दिया और भक्ति करने के लिए एक जनभाषा को लोगों तक पहुँचाया ताकि भक्ति पंडों पुरोहितों की गुलाम न रहे।

यद्यपि तुलसी का साहित्य जातिवाद विरोधी काव्य पंक्तियों से भरा हुआ है लेकिन उत्तरकांड में तुलसी जब इस बात के लिए क्षोभ प्रकट करते हैं कि शूद्र ब्राह्मणों की बराबरी करने लगे हैं तो गजब का अंतर्विरोध देखने को मिलता है और रामविलास शर्मा इस अंतर्विरोध पर संदेह जताते हैं कि 'यह पुरोहितों का चमत्कार है, जिन्होंने अपने काम की बातें मिलाकर रामचरित मानस को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश थी। '

क्योंकि तुलसी की भक्ति पुरोहितों के एकाधिकार पर चोट कर रही थी इसलिए भी पुरोहितों द्वारा ऐसा किया जाने की पूरी सम्भावना है न तो तुलसी ने पुरोहितों की खुशामद की और न ही कुलीन बनकर अपनी पूजा करने दी। 'उन्होंने समाज के इतर जनों का पक्ष लिया और राम के प्रेम के आधार पर उनकी समानता की घोषणा की। उनकी भक्ति का यह सामंत विरोधी मूल्य है।'

पुरोहितवाद और सामंतवाद ने वर्णाश्रम और जातिवाद को ही नहीं बढ़ाया था बल्कि स्त्रियों के साथ भी भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया उन्हें शिक्षा और उपासना से वंचित रखा। पितृसत्ता के इस दृष्टिकोण ने 'मेरा पति मेरा देवता है' जैसी पंक्तियों को जन्म दिया। तुलसी ने इसके विरोध में स्त्रियों के लिए उपासना के द्वार खोल दिए।

मानस में ग्रामीण स्त्रियों और सीता के बीच कितना सुन्दर प्रसंग है 'कोटी मनोज लजावन हारे। ' रामविलास शर्मा का कहना है कि “एक तरफ पति सेवा का उपदेश दूसरी तरफ पराधीन नारी के लिए स्वप्न में भी सुख न मिलने पर क्षोभ, यह कला तुलसीदास को छोड़कर और कहीं नहीं है। "

जो लोग 'ढोल गंवार सूद्र पशु नारी' का उलाहना देते हैं उनकी स्मृति से यह विस्मृत हो चुका है कि तुलसी स्त्री पराधीनता का विरोध करते हैं फिर वे स्त्री को ताड़ना का अधिकारी कैसे कहते हैं, ढोल गंवार वाली पंक्ति के सम्बन्ध में डॉ0 शर्मा का मत है कि यह पंक्ति समुद्र की बातचीत में बड़ी की अप्रासांगिक ढंग से आ जाती है। शर्मा जी इसे उन लोगों की हरकत मानते हैं जो यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि नारी पराधीन है और उसे स्वप्न में भी सुख है।"

सामंती व्यवस्था में धर्म लिंग भेद से अलग-अलग होता है जबकि तुलसी स्त्री और पुरुष को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश देते हैं।

सामंती व्यवस्था में विवाह पूर्व प्रेम स्वीकार्य नहीं है जबकि तुलसी का साहित्य राम और सीता के मर्मस्पर्शी वर्णन और प्रेम संवेदनाओं की लोक व्यवहारिकता से भरा हुआ है तुलसी भक्त कवि होने बावजूद विवाह मंडप में सीता की तन्मयता का कितना मर्मस्पर्शी चित्रण करते हैं जहाँ सीता राम की छवि कंगन के नग में देखती हुई सुध भूल जाती हैं-

"राम को रूप निहारती जानकी कंकन के नग की परछाहीं
यातै सबै सुधि भूली गई कर टेकी रही पल टारति नहीं।"
तुलसी की भक्ति में मानव मूल्य

चण्डीदास की पंक्ति है 'सबार ऊपरे मानुष सत्य'। भक्त कवि धर्म जाति की अपेक्षा मनुष्यता और मानवीय मूल्यों की पैरवी करते हैं। तुलसी के लिए तो भक्ति का अर्थ ही मानवता की सेवा है। वे जगह-जगह मनुष्य के दुःखों के साथ स्वयं को जोड़ते दिखते हैं-

"आगि बड़ बागी ते बड़ी है आगि पेट की। "
"नहिं दरिद्रम दुख जग माहीं।"

इसलिए वे राम से मनुष्यता के लिए खतरा इस दरिद्रता के रावण का विनाश करने की प्रार्थना करते हैं।

अब सोचिए कि तुलसी अगर वाकई सामंतवाद के समर्थक होते तो वे मजलूमों, दरिद्रों की आवाज को महत्त्व क्यों देते हैं। उनका साहित्य जनभाषा में जनता की आवाज में. राम के लोग कल्याणकारी रूप का वर्णन करता है। इसका सम्बन्ध किसी एक धर्म से बेशक हो लेकिन तुलसी के साहित्य का लक्ष्य मानव कल्याण में निहित है।

तुलसीदास इस मानवीय सहानुभूति का आधार सामाजिक यथार्थ से ग्रहण करते हैं। वे समाज को लेकर उसके यथार्थ को लेकर सजग है।

उनकी सामाजिक चेतना किसान और भिखारी की दरिद्रता के कारणों की पड़ताल करती दिखती है-

'खेती न किसान को भिखारी को न भीखभली
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।'

निश्चित ही सत्ता, और समाज तथा राजा और प्रजा के बीच के इस संघर्ष में तुलसी समाज और जनता के साथ खड़े हैं। यह उनके साहित्य का सामंत विरोधी मूल्य है। इसलिए वे ऐसे राजा को कोसने में संकोच नहीं करते जिनके राज्य में प्रजा दुखी रहती है।

जासु राज्य प्रिय प्रजा दुखारी। ते नृप अवस नरक अधिकारी।'

और देखिए-

'राजकरत बिनु काज ही
करैं कुचालि कुसाज।

यह सामाजिक यथार्थ ही उन्हें एक आदर्श राज्य की कल्पना का स्वप्न देता है। जहाँ समाज का दर्द खत्म हो सब सुखी हो मनुष्य मनुष्य का दुश्मन न बने, जातिवाद, सामंतवाद से रहित समाज का स्वप्न। जिसे हम यूटोपिया कहते हैं और तुलसी एक राजराज्य की परिकल्पना करते हैं। इसलिए उन्हें अवध सबसे प्रिय है।

"अवध सरिस प्रिय मोहीं न सोऊ।
यह प्रसंग जाने कोऊ कोऊ।"

निष्कर्ष - कहा जा सकता है कि तुलसी के लिए भक्ति अपने समाज के यथार्थ को देखने की दृष्टि थी जो सामंतवाद का विरोध करते हुए आगे बढ़ी, धार्मिकता उनके यहाँ अपने समय और समाज की चिंताओं से अलग नहीं है। अपने समय के सामाजिक यथार्थ को दिखाना भी तुलसी के साहित्य का लक्ष्य है। इसलिए 'तुलसी हमारे जातीय जनजागरण के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कविता की आधारशिला जनता की एकता है।'

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- काव्य के प्रयोजन पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- भारतीय आचार्यों के मतानुसार काव्य के प्रयोजन का प्रतिपादन कीजिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आचायों के मतानुसार काव्य प्रयोजन किसे कहते हैं?
  4. प्रश्न- पाश्चात्य मत के अनुसार काव्य प्रयोजनों पर विचार कीजिए।
  5. प्रश्न- हिन्दी आचायों के काव्य-प्रयोजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए?
  6. प्रश्न- आचार्य मम्मट के आधार पर काव्य प्रयोजनों का नाम लिखिए और किसी एक काव्य प्रयोजन की व्याख्या कीजिए।
  7. प्रश्न- भारतीय आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षणों का विश्लेषण कीजिए
  8. प्रश्न- हिन्दी के कवियों एवं आचार्यों द्वारा प्रस्तुत काव्य-लक्षणों में मौलिकता का अभाव है। इस मत के सन्दर्भ में हिन्दी काव्य लक्षणों का निरीक्षण कीजिए 1
  9. प्रश्न- पाश्चात्य विद्वानों द्वारा बताये गये काव्य-लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
  10. प्रश्न- आचार्य मम्मट द्वारा प्रदत्त काव्य-लक्षण की विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' काव्य की यह परिभाषा किस आचार्य की है? इसके आधार पर काव्य के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  12. प्रश्न- महाकाव्य क्या है? इसके सर्वमान्य लक्षण लिखिए।
  13. प्रश्न- काव्य गुणों की चर्चा करते हुए माधुर्य गुण के लक्षण स्पष्ट कीजिए।
  14. प्रश्न- मम्मट के काव्य लक्षण को स्पष्ट करते हुए उठायी गयी आपत्तियों को लिखिए।
  15. प्रश्न- 'उदात्त' को परिभाषित कीजिए।
  16. प्रश्न- काव्य हेतु पर भारतीय विचारकों के मतों की समीक्षा कीजिए।
  17. प्रश्न- काव्य के प्रकारों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  18. प्रश्न- स्थायी भाव पर एक टिप्पणी लिखिए।
  19. प्रश्न- रस के स्वरूप का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  20. प्रश्न- काव्य हेतु के रूप में निर्दिष्ट 'अभ्यास' की व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- 'रस' का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके अवयवों (भेदों) का विवेचन कीजिए।
  22. प्रश्न- काव्य की आत्मा पर एक निबन्ध लिखिए।
  23. प्रश्न- भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्य ने अलंकारों को काव्य सौन्दर्य का भूल कारण मानकर उन्हें ही काव्य का सर्वस्व घोषित किया है। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में आपकी क्या आपत्ति है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- काव्यशास्त्रीय सम्प्रदायों के महत्व को उल्लिखित करते हुए किसी एक सम्प्रदाय का सम्यक् विश्लेषण कीजिए?
  25. प्रश्न- अलंकार किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- अलंकार और अलंकार्य में क्या अन्तर है?
  27. प्रश्न- अलंकारों का वर्गीकरण कीजिए।
  28. प्रश्न- 'तदोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि कथन किस आचार्य का है? इस मुक्ति के आधार पर काव्य में अलंकार की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते' कथन किस आचार्य का है? इसका सम्बन्ध किस काव्य-सम्प्रदाय से है?
  30. प्रश्न- हिन्दी में स्वीकृत दो पाश्चात्य अलंकारों का उदाहरण सहित परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्यालंकार के रचनाकार कौन थे? इनकी अलंकार सिद्धान्त सम्बन्धी परिभाषा को व्याख्यायित कीजिए।
  32. प्रश्न- हिन्दी रीति काव्य परम्परा पर प्रकाश डालिए।
  33. प्रश्न- काव्य में रीति को सर्वाधिक महत्व देने वाले आचार्य कौन हैं? रीति के मुख्य भेद कौन से हैं?
  34. प्रश्न- रीति सिद्धान्त की अन्य भारतीय सम्प्रदायों से तुलना कीजिए।
  35. प्रश्न- रस सिद्धान्त के सूत्र की महाशंकुक द्वारा की गयी व्याख्या का विरोध किन तर्कों के आधार पर किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- ध्वनि सिद्धान्त की भाषा एवं स्वरूप पर संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  37. प्रश्न- वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ ध्वनि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  38. प्रश्न- 'अभिधा' किसे कहते हैं?
  39. प्रश्न- 'लक्षणा' किसे कहते हैं?
  40. प्रश्न- काव्य में व्यञ्जना शक्ति पर टिप्पणी कीजिए।
  41. प्रश्न- संलक्ष्यक्रम ध्वनि को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
  42. प्रश्न- दी गई पंक्तियों में में प्रयुक्त ध्वनि का नाम लिखिए।
  43. प्रश्न- शब्द शक्ति क्या है? व्यंजना शक्ति का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  44. प्रश्न- वक्रोकित एवं ध्वनि सिद्धान्त का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  45. प्रश्न- कर रही लीलामय आनन्द, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त।
  46. प्रश्न- वक्रोक्ति सिद्धान्त व इसकी अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  47. प्रश्न- वक्रोक्ति एवं अभिव्यंजनावाद के आचार्यों का उल्लेख करते हुए उसके साम्य-वैषम्य का निरूपण कीजिए।
  48. प्रश्न- वर्ण विन्यास वक्रता किसे कहते हैं?
  49. प्रश्न- पद- पूर्वार्द्ध वक्रता किसे कहते हैं?
  50. प्रश्न- वाक्य वक्रता किसे कहते हैं?
  51. प्रश्न- प्रकरण अवस्था किसे कहते हैं?
  52. प्रश्न- प्रबन्ध वक्रता किसे कहते हैं?
  53. प्रश्न- आचार्य कुन्तक एवं क्रोचे के मतानुसार वक्रोक्ति एवं अभिव्यंजना के बीच वैषम्य का निरूपण कीजिए।
  54. प्रश्न- वक्रोक्तिवाद और वक्रोक्ति अलंकार के विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  55. प्रश्न- औचित्य सिद्धान्त किसे कहते हैं? क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य के प्रकारों का वर्गीकरण कीजिए।
  56. प्रश्न- रसौचित्य किसे कहते हैं? आनन्दवर्धन द्वारा निर्धारित विषयों का उल्लेख कीजिए।
  57. प्रश्न- गुणौचित्य तथा संघटनौचित्य किसे कहते हैं?
  58. प्रश्न- प्रबन्धौचित्य के लिये आनन्दवर्धन ने कौन-सा नियम निर्धारित किया है तथा रीति औचित्य का प्रयोग कब करना चाहिए?
  59. प्रश्न- औचित्य के प्रवर्तक का नाम और औचित्य के भेद बताइये।
  60. प्रश्न- संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के प्रकार के निर्धारण का स्पष्टीकरण दीजिए।
  61. प्रश्न- काव्य के प्रकारों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- काव्य गुणों की चर्चा करते हुए माधुर्य गुण के लक्षण स्पष्ट कीजिए।
  63. प्रश्न- काव्यगुणों का उल्लेख करते हुए ओज गुण और प्रसाद गुण को उदाहरण सहित परिभाषित कीजिए।
  64. प्रश्न- काव्य हेतु के सन्दर्भ में भामह के मत का प्रतिपादन कीजिए।
  65. प्रश्न- ओजगुण का परिचय दीजिए।
  66. प्रश्न- काव्य हेतु सन्दर्भ में अभ्यास के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- काव्य गुणों का संक्षित रूप में विवेचन कीजिए।
  68. प्रश्न- शब्द शक्ति को स्पष्ट करते हुए अभिधा शक्ति पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- लक्षणा शब्द शक्ति को समझाइये |
  70. प्रश्न- व्यंजना शब्द-शक्ति पर प्रकाश डालिए।
  71. प्रश्न- काव्य दोष का उल्लेख कीजिए।
  72. प्रश्न- नाट्यशास्त्र से क्या अभिप्राय है? भारतीय नाट्यशास्त्र का सामान्य परिचय दीजिए।
  73. प्रश्न- नाट्यशास्त्र में वृत्ति किसे कहते हैं? वृत्ति कितने प्रकार की होती है?
  74. प्रश्न- अभिनय किसे कहते हैं? अभिनय के प्रकार और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  75. प्रश्न- रूपक किसे कहते हैं? रूप के भेदों-उपभेंदों पर प्रकाश डालिए।
  76. प्रश्न- कथा किसे कहते हैं? नाटक/रूपक में कथा की क्या भूमिका है?
  77. प्रश्न- नायक किसे कहते हैं? रूपक/नाटक में नायक के भेदों का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- नायिका किसे कहते हैं? नायिका के भेदों पर प्रकाश डालिए।
  79. प्रश्न- हिन्दी रंगमंच के प्रकार शिल्प और रंग- सम्प्रेषण का परिचय देते हुए इनका संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  80. प्रश्न- नाट्य वृत्ति और रस का सम्बन्ध बताइए।
  81. प्रश्न- वर्तमान में अभिनय का स्वरूप कैसा है?
  82. प्रश्न- कथावस्तु किसे कहते हैं?
  83. प्रश्न- रंगमंच के शिल्प का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  84. प्रश्न- अरस्तू के 'अनुकरण सिद्धान्त' को प्रतिपादित कीजिए।
  85. प्रश्न- अरस्तू के काव्यं सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  86. प्रश्न- त्रासदी सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  87. प्रश्न- चरित्र-चित्रण किसे कहते हैं? उसके आधारभूत सिद्धान्त बताइए।
  88. प्रश्न- सरल या जटिल कथानक किसे कहते हैं?
  89. प्रश्न- अरस्तू के अनुसार महाकाव्य की क्या विशेषताएँ हैं?
  90. प्रश्न- "विरेचन सिद्धान्त' से क्या तात्पर्य है? अरस्तु के 'विरेचन' सिद्धान्त और अभिनव गुप्त के 'अभिव्यंजना सिद्धान्त' के साम्य को स्पष्ट कीजिए।
  91. प्रश्न- कॉलरिज के काव्य-सिद्धान्त पर विचार व्यक्त कीजिए।
  92. प्रश्न- मुख्य कल्पना किसे कहते हैं?
  93. प्रश्न- मुख्य कल्पना और गौण कल्पना में क्या भेद है?
  94. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के काव्य-भाषा विषयक सिद्धान्त पर प्रकाश डालिये।
  95. प्रश्न- 'कविता सभी प्रकार के ज्ञानों में प्रथम और अन्तिम ज्ञान है। पाश्चात्य कवि वर्ड्सवर्थ के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  96. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के कल्पना सम्बन्धी विचारों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  97. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के अनुसार काव्य प्रयोजन क्या है?
  98. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के अनुसार कविता में छन्द का क्या योगदान है?
  99. प्रश्न- काव्यशास्त्र की आवश्यकता का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
  100. प्रश्न- रिचर्ड्स का मूल्य-सिद्धान्त क्या है? स्पष्ट रूप से विवेचन कीजिए।
  101. प्रश्न- रिचर्ड्स के संप्रेषण के सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- रिचर्ड्स के अनुसार सम्प्रेषण का क्या अर्थ है?
  103. प्रश्न- रिचर्ड्स के अनुसार कविता के लिए लय और छन्द का क्या महत्व है?
  104. प्रश्न- 'संवेगों का संतुलन' के सम्बन्ध में आई. ए. रिचर्डस् के क्या विचारा हैं?
  105. प्रश्न- आई.ए. रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना की समीक्षा कीजिये।
  106. प्रश्न- टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। इसका हिन्दी साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है?
  107. प्रश्न- सौन्दर्य वस्तु में है या दृष्टि में है। पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र के अनुसार व्याख्या कीजिए।
  108. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव तथा विकासक्रम पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  110. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी समीक्षा का क्या अभिप्राय है? विवेचना कीजिए।
  111. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  112. प्रश्न- आलोचना की पारिभाषा एवं उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  113. प्रश्न- हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  114. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  115. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  116. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  117. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  118. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  119. प्रश्न- विखंडनवाद को समझाइये |
  120. प्रश्न- यथार्थवाद का अर्थ और परिभाषा देते हुए यथार्थवाद के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
  121. प्रश्न- कलावाद किसे कहते हैं? कलावाद के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।
  122. प्रश्न- बिम्बवाद की अवधारणा, विचार और उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
  123. प्रश्न- प्रतीकवाद के अर्थ और परिभाषा का वर्णन कीजिए।
  124. प्रश्न- संरचनावाद में आलोचना की किस प्रविधि का विवेचन है?
  125. प्रश्न- विखंडनवादी आलोचना का आशय स्पष्ट कीजिए।
  126. प्रश्न- उत्तर-संरचनावाद के उद्भव और विकास को स्पष्ट कीजिए।
  127. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की काव्य में लोकमंगल की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
  128. प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि "आधुनिक साहित्य नयी मान्यताएँ" का उल्लेख कीजिए।
  129. प्रश्न- "मेरी साहित्यिक मान्यताएँ" विषय पर डॉ0 नगेन्द्र की आलोचना दृष्टि पर विचार कीजिए।
  130. प्रश्न- डॉ0 रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि 'तुलसी साहित्य में सामन्त विरोधी मूल्य' का मूल्यांकन कीजिए।
  131. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचनात्मक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  132. प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की साहित्य की नई मान्यताएँ क्या हैं?
  133. प्रश्न- रामविलास शर्मा के अनुसार सामंती व्यवस्था में वर्ण और जाति बन्धन कैसे थे?

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